जैसलमेर किला, Jaisalmer fort










(गढ़ दिल्ली, गढ़ आगरो,भल अधगढ़ बीकानेर

भलो चिणायो भाटियां, सिरजे तो जैसलमेर) 



जैसलमेर के विशाल रेगिस्तान में जैसलमेर दुर्ग जिसे सोनार का किला  , स्वर् नाम से विश्व में जाना जाता है, किसी तिलिस्म व आश्चर्यलोक सा लगता है। रेत के अथाह समन्दर के बीच बने इस स्वप्न महल को देखकर मन में हैरत भरी जिज्ञासा जाग उठती है, कि आखिर वे कौनसे कारण व आकर्षण होंगे, जिसके वशीभूत हो भाटी राजा जैसल ने इस वीराने में अपना यह स्वप्न महल बनाया। जैसलमेर बलुवे पत्थरों के लिए भी प्रसिद्ध है। इसी बलुवे पत्थरों से यहाँ का किला व अन्य भवन बने है। जब इन पत्थरों पर सूर्य की पहली किरणे पड़ती है तो वे इस नगर में बनी इमारतों व किले को अनोखा सौन्दर्य प्रदान कर स्वर्णिम आभा बिखेरती है। शायद इसी खासियत से इस किले को सोनार का किला व जैसलमेर को स्वर्ण नगरी कहा जाता है।
जैसलमेर से पूर्व इस क्षेत्र की राजधानी लोद्रवा को यवन सैनिकों द्वारा उजाड़ देने के व यवनों के जाने के बाद जैसलदेव लोद्रवा का राजा बने। उन्होंने सुरक्षा की दृष्टि से एक ऋषि की सलाह पर यहाँ यह किला बनाकर अपने नाम पर जैसलमेर नगर बसाया। इस किले की नींव 12 जुलाई 1156 को रखी गई थी। जैसल के समय तक दुर्ग का एक हिस्सा और एक दरवाजे का ही निर्माण हो पाया था। उसके बाद समय समय पर यहाँ के विभिन्न शासकों ने किले में निर्माण करवाकर इसे और भव्य बना दिया।
राजस्थान के प्राचीनतम दुर्गों में तीसरे नंबर इस दुर्ग की संरचना मही या धान्वन दुर्ग की कोटि में है। किला धरातल 76 मीटर उंचाई पर बना है। किले की विशाल पर सुरक्षा के लिए दुश्मन पर वार करने के लिए बेमिसाल 99 बुर्ज बने है। समूचा दुर्ग गोल गढ़गजों व कोनों पर बने वर्गाकार बुर्जों समेत तीन मीटर मोटे परकोटे से जुड़ा है। परकोटे के साथ दुर्गम खाई है। सुरक्षा व सुन्दरता के लिए दुर्ग घाघरानुमा परकोटे से जोड़ा गया है। इस परकोटे को कमरकोट व पाड़ा के नाम से जाना जाता है। किले में पहुँचने के लिए चार द्वार- अक्षयपोल, सूरजपोल, गणेशपोल और हवापोल है। सुरजाकोट की तोरण पर बल्लरी का अनुपम कार्य किया गया है। ये द्वार 1577 से 1623 के मध्य बने है। उत्कृष्ट शिल्पांकन के लिए विख्यात इस दुर्ग में बनी हवेलियाँ के साथ राज विलास महल, रंगमहल, बादल विलास, सर्वोत्तम विलास, मोती महल, राज महल, जवाहर विलास, जनाना महल प्रमुख है। भित्तिचित्रों के इस खाजने वाले किले में हवादार बारादरी, कक्ष, गवाक्ष, गलियारा, हवादार छज्जे काफी आकर्षक है।
किले में चार वैष्णव व आठ जैन मंदिर है जो अपनी स्थापत्यकला के लिए प्रसिद्ध है। एक से बढ़कर एक मंदिरों के साथ किले में प्राकृत, संस्कृत और ब्रज भाषा के अनेक प्राचीन ग्रंथों वाले ज्ञान भंडार है। इन ज्ञान भंडारों में वैदिक, बौद्ध, जैन धर्म, न्याय, दर्शन, राजनीति, चिकित्सा, खगोल, ज्योतिष आदि पर अनेक ग्रन्थ संग्रहित है।
स्थापत्य व शिल्प की विशिष्टता लिए यह दुर्ग निर्माण के मामले में समूचे विश्व में दुर्लभ है| इस दुर्ग ने गौरी, खिलजी, फिरोजशाह तुगलक, मुगल आदि कई आक्रमणकारियों के हमले झेले है। एक समय था जब इस दुर्ग से होते हुए सिंध, मिश्र, इराक, कांधार और मुलतान आदि देशों का व्यापारिक कारवाँ देश के अन्य भागों को जाता था। प्रमुख व्यापारिक मार्ग होने के कारण ही 1661-1708 के मध्य रेगिस्तान में बने इस दुर्ग की समृद्धि अपने चरम पर भी थी। कालांतर में समुद्री मार्ग से व्यापार होने के कारण इसका महत्त्व घट गया, लेकिन आज यह दुर्ग विश्व पर्यटन के नक्शे पर प्रमुखता से है। इस दुर्ग को लेकर ये पंक्तियाँ प्रचलित है-


 

जैसलमेर जिले का भू-भाग प्राचीन काल में ’माडधरा’ अथवा ’वल्लभमण्डल’ के नाम से प्रसिद्ध था। इतिहास के अनुसार महाभारत युद्ध के पश्चात् यादवों का मथुरा से काफी संख्या में बहिर्गमन हुआ। ये राजस्थान एवं गुजरात की ओर अग्रसर हुए। जैसलमेर के भूतपूर्व शासकों के पूर्वज जो अपने को भगवान कृष्ण के वंशज मानते हैं, संभवतः छठी शताब्दी में जैसलमेर के भूभाग पर आ बसे थे। इस जिले में यादवों के वंशज भाटी राजपूतों की प्रथम राजधानी तनोट, दूसरी लौद्रवा तथा तीसरी जैसलमेर में रही। राजस्थान के प्रसिद्ध मरू शहर जैसलमेर की स्थापना 1156 ई. में भाटी राजा जैसल ने की थी। जैसलमेर, जिले का प्रमुख नगर हैं जो नक्काशीदार हवेलियों, गलियों, प्राचीन जैन मंदिरों, मेलों और उत्सवों के लिये प्रसिद्ध हैं।


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